Friday, October 31, 2014

My Times : An Autobiography

My Times is a brilliant work which would not only enthuse the scholars of Indian nationalist struggle but also anyone who wants to take a peek into the world of the leaders during that era. Kripalani sheds light on the relationship he shared with leaders of his times- Jawaharlal Nehru, Subhas Bose, Maulana Azad, Sardar patel et al. Written in a lucid language, My Times is greatly reminiscent of the speeches made by the Acharya, of which Sarojini Naidu once remarked – ‘They are an enduring memorial of a soul that has passed from turmoil to an inner sense of realization.’




Acharya J B Kripalani passed away in 1982.

Published by Rupa Publisher.
Page: 986
Price: 995/-








आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट : एक परिचय

(रजिस्टर्ड चैरिटेबल ट्रस्ट)
स्थापना – 30 मार्च 2000
उद्देश्य रचनात्मक प्रयत्नों के सहारे आचार्य कृपलानी की स्मृतियों को निरन्तरता प्रदान करना।
पंजीकृत कार्यालय : सुचेता भवन, रियर ब्लाक, तृतीय तल
                        11-, विष्णु दिगंबर मार्ग, नई दिल्ली-110002
                        फोन/फैक्स : 011-23234190 मो. : 9717052865
                        ई मेल : akmt2000@gmail.com
संस्थापक ट्रस्टी – 1. एन. कृष्णास्वामी 2. हरिदेव शर्मा 3. भरत सहाय
सन् 2002 में सेंट्रल रिलीफ कमिटी का आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट में विलय कर दिया गया जो आचार्य कृपलानी की बनायी सबसे महत्वपूर्ण संस्था थी।

सन् 2005 में सुचेता स्मारक निधि का भी आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट में विलय हुआ जिसे सुचेता कृपलानी के निधन (1974) के बाद 1975 में बनाया गया था।

आचार्य कृपलानी ऐसे राजनेता थे जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग साढ़े तीन दशक बाद तक स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों के चिराग को जलाए रखा। पदप्रतिष्ठा और किसी भौतिक महत्वाकांक्षा से दूर वे एक समर्पित राजनीतिक संत की भूमिका निभाते रहे। उनके जाने के बाद भी उनके कुछ मित्रोंसहयोगियोंसमर्थकों ने उनके चिराग की लौ को जीवित रखा है। आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट’ उस लौ को एक प्रकाश स्तम्भ के रूप में देखता है और इसकी कोशिश है कि वह लौ मशाल बनकर देश-समाज का सदा पथ-प्रदर्शन करता रहे और उनके द्वारा छोड़े गए मूल्यों-आदर्शों से सारा जहाँ रोशन होता रहे।

जीवन परिचय : आचार्य जे.बी. कृपलानी

परिचय
आचार्य जे.बी. कृपलानी



जन्म : 1888, हैदराबाद, सिंध।
शिक्षा : हैदराबाद व मुंबई। पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज से इतिहास में एम.ए.–1909
अध्यापन (मुजफ्फरपुर, बिहार)–1912-1917
चंपारन सत्याग्रह (1917), में महात्मा गांधी के सहयोगी।
पंडित मदनमोहन मालवीय, कांग्रेस अध्यक्ष के सहायक–1918
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर–1919-1920
असहयोग आंदोलन में विश्वविद्यालय से इस्तीफा–1920
श्री गांधी आश्रम की स्थापना–1920, 1971 तक श्री गांधी आश्रम के निदेशक।
प्राचार्य गुजरात विद्यापीठ–1922-27
खादी और स्वाधीनता संग्राम के काम-काज में सक्रिय–1927-34
कांग्रेस महासचिव–1934-46
कांग्रेस के 57वें अध्यक्ष–1946-47, नीतिगत मतभेद होने पर कांग्रेस अध्यक्ष पद से नवंबर, 1947 में इस्तीफा।
1950, में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़े और हारे, पी.डी. टंडन जीते।
विजिलपत्रिका का प्रारंभ–1950
कांग्रेस डेमोक्रेटि· फ्रंट की स्थापना–1951
कांग्रेस से इस्तीफा और किसान-मजदूर प्रजा पार्टी का विलय–1952, और प्रसोपा का गठन।
प्रसोपा के अध्यक्ष–1952
प्रसोपा के अध्यक्ष पद से इस्तीफानवंबर, 1954
प्रसोपा से अलग हुए और निर्दलीय राजनीति, 1960
संसदीय जीवन-
            1. संविधान सभा के सदस्य–1946-50
            2. अंतरकालीन संसद में सदस्य–1950-52
            3. लोकसभा सदस्य
            1.         1952–·किसान-मजदूर प्रजा पार्टी के अध्यक्ष के  रूप में फैजाबाद से चुनाव लड़े और हारे।
            2.         1953 में भागलपुर-सहरसा चुनाव क्षेत्र से एक उपचुनाव में जीते।
            3.         1957-62 के लो·सभा चुनाव में सीतामढ़ी से जीते।
            4.         1962 के आम चुनाव में मुंबई से वी.·के. कृष्ण मेनन के मुकाबले हारे।
            5.         1963 में अमरोहा उपचुनाव कांटे की लड़ाई में जीते।
            6.         1967 के आम चुनाव में रायपुर से हारे।
            7.         1967 के उपचुनाव में गुना से जीते।
            8.         1971 का चुनाव नहीं लड़ा, आगरा से प्रस्ताव था।
            9.         1977 में जनता पार्टी के लिए प्रचार किया।
जेल यात्राएं–1917, 1921, 1930, 1933, 1934 (दो बार) और 1942
निधन–19 मार्च 1982
पुस्तकें
            1.         गांधीजीवन और दर्शन
            2.         गांधी दर्शन
            3.         गांधी मार्ग
            4.         अहिंसक क्रांति
            5.         सर्वोदय और लोकतंत्र
            6.         सर्वोदय और पंचवर्षीय योजना
            7.         प्रजा सोशलिस्ट पार्टी
            8.         दी फ्युचर ऑफ दी कांग्रेस
            9.         फ्रीडम इन पेरिल
            10.       ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी
            11.       इंडियन नेशनल कांग्रेस
            12.       दी पोलिटिक्स ऑफ चरखा
            13.       वर्ग संघर्ष
            14.       54वें कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्षीय भाषण
            15.       तिब्बत
            16.       योजनागांधी की कसौटी पर
            17.       गांधी : एक राजनैतिक अध्ययन
            18.       माई टाइम्स

Tuesday, October 21, 2014

गुलामी बापू की

आचार्य कृपलानी
आज बापूजी की बात कहने लगा हूँ, तो उससे पहले थोड़ी अपनी कहानी भी सुना दूँ।
मैं बचपन से ही थोड़ा विद्रोही रहा हूँ। घर में विद्रोह, पाठशाला में विद्रोह। शिक्षकों के साथ भी मेरे कई बार झगड़े हुए। दो बार तो मुझे कॉलेज से निकाल दिया गया था। नौकरियाँ बदलनी पड़ी हैं। इतना ही नहीं प्रांत भी बदलने पड़े हैं। मैं अपने मित्रों को भी कष्ट देता हूँ, शत्रु की तो कोई बात ही नहीं। इसी कारण मुझे कोई अपने पास नहीं रखता।
आजकल क्रान्ति की बातें खूब होती हैं। जहाँ जाओ, वहाँ इंकलाब जिंदाबादकी आवाज सुनाई देती है। परन्तु उस जमाने में इं·लाब पुकारने वाला कोई नहीं था। मरने वाले थोड़े-से थे। शायद उन थोड़ों में एक मैं भी था।
हमको अहिंसा वगैरह में कोई भरोसा न था। पढ़ाई पूरी होते ही मैं अध्यापक बन गया। वह क्यों? दूसरों पर क्रान्ति की रंगत लगाने के लिए! सरकार मुझे वेतन देती थी और मैं सरकार के विरुद्ध बगावत फैलाता था। ऐसे समय में जब बापूजी आए, तब मैं बिहार के मुजफ्फरपुर में इतिहास पढ़ाता था।
बापूजी सन् 1914 में अफ्रीका से भारत आए और अपने लड़कों यानी अपने आश्रम के लड़कों को लेकर कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शांति निकेतन में उतरे थे। तब तक वे महात्माकी उपाधि से विभूषित नहीं हुए थे। उन दिनों वे मिस्टर गांधी कहलाते थे। फिर भी वे एक विचित्र प्राणी तो थे ही। विचित्र प्राणी को देखने का किसका मन नहीं होता? मैं भी कौतूहलवश उनसे मिलने नि·ला।
उनका शरीर इतना छोटा और दुबला कि किसी को यह नहीं लग स·ता था कि यहाँ कोई महापुरुष बैठा है। लेकिन दो चीजें उनको बाकी सबसे अलग कर देती थीं। उनकी वाणी और आँखें। उनकी आँखों में कोई अद्भुत ज्योति थी। उनकी वाणी में अजब शक्ति। उनकी आवाज भारी नहीं थी तो भी ऐसा मालूम होता मानो मेघ गरज रहे हों। खूब विचार-विचार कर बोल रहे हों। ऐसा लगता था कि जो कुछ वे कह रहे हैं, उसे वे करके छोड़ेंगे। ऐसी ध्वनि उसमें सुनाई देती। इसी कारण उनका धीमा और मंदगति वाला शब्द प्रवाह भी बहुत प्रबल, शक्तिशाली लगता था।
उस समय बापू की पोशाक, आहार सब कुछ अलग था। आज जो गांधी टोपी घर-घर प्रख्यात हो चुकी है, वही गांधी टोपी वे उन दिनों पहना करते थे। पैर नंगे! आहार में मूंगफली। यहाँ आने से पहले वे फलाहार ही करते थे। यह उनका नियम था। यहाँ आकर देखा कि फलाहार बहुत महंगा पड़ेगा और महंगा आहार गरीब को कैसे ठीक पड़ेगा। इसलिए उन्होंने मूंगफली खाना शुरू किया। यह तो हुई उनकी बाहर की बात। अब सुनो भीतर की!
पहली मुलाकात में ही मैं समझ गया कि यह आदमी जो काम हाथ में लेगा, उसे पूरा किए बिना छोड़ेगा नहीं। या तो काम को समाप्त कर डालेगा, या अपने को ही समाप्त कर डालेगा। इसके अलावा उस समय उनमें एक दूसरी शक्ति भी मुझे दिखाई पड़ी। वह है लोगों को अपनी ओर खींच लेने की शक्ति। इस आकर्षण का कारण यह था कि यह आदमी सर्वथा प्रामाणिक था। ऐसी एकाग्रता, दृढ़ता, प्रामाणिकता तथा विचारवत्ता वाला आदमी मैंने पहले कभी नहीं देखा था। महापुरुष मैंने अनेक देखे थे, परन्तु उनकी जैसी शक्ति मैंने ·हीं भी नहीं देखी थी। उस समय के बहुत बड़े-बड़े नायकों ने देश की गरीबी के विषय में बड़ी-बड़ी पुस्तकें लिखी थीं, परन्तु गरीबी क्या चीज है, यह भी नहीं जाना था। उन लोगों ने स्वदेशी के विषय में बड़े-बड़े उत्तेजक भाषण दिए थे, परन्तु स्वदेशी कपड़ा कैसा होता है, यह कभी नहीं देखा था।
इस तरह अपनी पहली मुलाकात में ही मैंने अपने को उनके प्रति सौंप दिया था। इसका यह अर्थ नहीं है कि बापू की सभी बातें मुझे मान्य हैंभई बिलकुल नहीं! बापू जब से आए हैं, संयम की बातें करते रहते हैं। मुझमें संयम है ही नहीं। इस प्रकार हमारे बीच में कुछ भी मेल नहीं है। मेरे जैसा विद्रोही चेला गांधी का दूसरा कोई नहीं होगा। इतना होते हुए भी मैंने उनकी तानाशाही मंजूर की है। इसका कारण बताता हूँ।
दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं। पहले हैं, जो अपनी महत्ता और शक्ति को समझते हैं। उनमें दूसरों को ले चलने की भी शक्ति होती है। दूसरा प्रकार उन लोगों को है, जिनमें दूसरों को चलाने की शक्ति नहीं होती। वे स्वयं मानो अनुयायी होने के लिए ही बनाए गए होते हैं। इसलिए वे लोग दूसरे की महत्ता और शक्ति को समझ सकते हैं, स्वीकार कर सकते हैं तथा स्वीकार कर लेते हैं। तीसरे प्रकार के लोग वे होते हैं, जिनमें महत्ता और शक्ति नहीं होती। वे दूसरों की महत्ता और क्षमता को समझ नहीं स·ते, स्वीकार भी नहीं कर सकते। ये लोग कुछ नहीं कर सकते। इनकी हालत त्रिशंकु जैसी बड़ी विचित्र होती है।
अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि आप हिंसा में भरोसा रखने वाले हैं और गांधी ठहरे परम अहिंसावादी! गांधीजी ब्रिटिश राज्य में श्रद्धा रखने वाले हैं और आप उसका उच्छेद करने वाले। तो आपने उनका नेतृत्व किस प्रकार स्वीकार किया? मैंने इस आदमी में एक शक्ति देखी है। वह है या तो काम को अंत तक पहुँचाना या अपना अंत कर देना। इसलिए मैंने इनको अपना नेता स्वीकार किया है। दूसरे उनमें सच्चाई है। आज वे अहिंसा का समर्थन करते हैं, परन्तु जिस क्षण इनको यह समझ में आ जाएगा कि अहिंसा से कुछ सिद्ध होने वाला नहीं है, उसी समय वे हिंसा के रास्ते पर चल कर ऐसी उग्रता से लड़ेंगे, वैसा दूसरा नहीं लड़ेगा। इस एक ही चीज ने मुझे उनके प्रति आकृष्ट किया है। इसीलिए मैं उनके साथ हूँ। हिंसा के विषय में तो मेरा विश्वास हो गया है कि बापू को हिंसा से डिगा देना, विचलित करना, एकदम असम्भव है। उनको जिस क्षण यह लगा कि ब्रिटिश राज्य देश के कल्याण के लिए नहीं है, उसी समय उन्होंने उसके लिए ऐसे कठोर विशेषण प्रयुक्त किए हैं, जैसे लोकमान्य तिलक भी नहीं कर पाए थे। ब्रिटिश शासन को उन्होंने शैतानी राज्य कहा और वह भी इतने जोर से कि फिर तो पूरा देश उसको शैतान कहने लगा। नन्हें बच्चे भी उसे शैतान सरकार कहते तो भी उनको कोई पकड़ता नहीं था।
उनके जैसा काम करने वाला और काम लेने वाला अब तक मैंने नहीं देखा। वे छोटे-छोटे कामों में भी अपना प्राण होम करने के लिए तैयार हो जाते। अपने प्राण हथेली पर रखकर घूमने वाला मैंने उन जैसा कोई दूसरा नहीं देखा। अपने प्राणों को संकट में डालकर उनको यह नहीं लगता था कि वे कोई महान त्याग कर रहे हैं। छोटे-छोटे कामों में भी वे बड़े-बड़े कामों को समाया हुआ समझते थे।
वे टट्टी साफ ·रते हरिजनों का काम करते हैं और मानते हैं कि वे देश का उद्धार कर रहे हैं। जिस काम को कुछ एक लोग ओल्ड डेम्स वर्कयानी पुरानी बुढिय़ा का काम कहते थे, उस चरखे में भी वे देश का उद्धार देखते थे। कोई भी छोटा काम उनको जरा भी छोटा नहीं लगता था। उसमें तो उनको स्वराज्य के दर्शन होते।

हम लोग आत्मा में परमात्मा का दर्शन करना कहते हैं, उसी प्रकार वे उन चीजों में स्वराज्य के दर्शन करते। इसी कारण उनके साथ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता था। मुझे तो यह लगता है कि उनकी फिलासफी का एक महत्त्वपूर्ण अंग यह है कि उनने कहीं भी प्रतिस्पर्धा के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ रखी थी। तुम एक बंदूक रखोगे तो सामने वाला दो बंदूक ले आएगा। लेकिन यदि तुम अहिंसक बन जाओगे, बंदूक ही नहीं रखोगे तो सामने वाला तुमसे होड़ करने, लडऩे भला क्या ले आएगा?