Tuesday, June 30, 2015

आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा 'सुचेता कृपलानी के अवदान' विषयक संगोष्ठी

आदर्श राजनीतिज्ञ थीं सुचेता कृपलानी- प्रभा दीक्षित

आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा 'सुचेता कृपलानी के अवदान' विषयक संगोष्ठी






नई दिल्ली। प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी, आदर्श राजनीतिज्ञ एवं देश की पहली महिला मुख्यमंत्री स्व. सुचेता कृपलानी की 107वीं जन्म-तिथि पर स्थानीय हिंदी भवन में एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट की ओर से आयोजित किया गया था।
संगोष्ठी की मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए वरिष्ठ लेखिका एवं इतिहासविद प्रभा दीक्षित ने कहा कि आजादी की लड़ाई में जितनी भी महिलाएं शामिल थीं उनमें सुचेता कृपलानी का नाम प्रमुख है। बात अलग है कि स्वतंत्रता संग्राम में शामिल अधिकांश महिलाएं उच्च शिक्षित एवं अंग्रेजी बोलने वाली थीं। आम जनता एवं महिलाओं के लिए उन्होंने आजीवन संघर्ष किया। आज उनका नाम संसद में मुखर सांसद एवं उत्तर प्रदेश में सफल मुख्यमंत्रियों में शामिल है। तमाम राजनीतिक विषमताओं के बावजूद अपने संघर्ष की बदौलत सुचेता कृपलानी ने राजनीति के क्षेत्र में एक मुकाम हासिल किया। इन कारणों से आज भी वे प्रासंगिक हैं।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि उनके व्यक्तित्व के कई रंग थे। 1934 में बिहार में आए भीषण भूकंप के बाद वहां वे एक समाजसेवी की भूमिका में थीं तो संसद में देश के बंटवारे के बाद पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों की समस्या को मुखर रूप से उठाया। 
वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने कहा कि सुचेता कृपलानी का जीवन संघर्षपूर्ण था। अपने जीवन और राजनीति में उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उम्र में लगभग बीस साल का अंतरपरिवार का विरोध और गांधी जी की इच्छा के विरूद्ध जाकर उन्होंने आचार्य जेबी कृपलानी से शादी की। किसी की भी गलत बात का वे समर्थन नहीं करती थीं। अपने वेतन से बचत करके वे जरूरतमंदों की मदद करती थीं।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ गांधीवादी सतपाल ग्रोवर ने कहा कि सुचेता कृपलानी एक आदर्श राजनीतिज्ञ एवं समाज सेविका थीं। स्वतंत्रता आंदोलनप्राकृतिक आपदाशरणार्थी समस्या आदि के हल में उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। संसद के अंदर शरणार्थियों को पुरुषार्थी बताते हुए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से तत्काल हस्तक्षेप करने की मांग की थी। आजादी के बाद देश के नवनिर्माण में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।

कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी ने और धन्यवाद ज्ञापन आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट के प्रबंध न्यासी अभय प्रताप ने किया। कार्यक्रम में मीनाक्षी बहन, सुष्मिता सिंह, डॉ. शिवानी सिंह, वंदना झा, मीना जेम्स, ममता नेगी, मीना प्रजापति, पिंकी यादव, कोमल, शोभा सिंह, वरिष्ठ लेखक अवधेश कुमार, अशोक शरण, मनोज झा, डॉ. अशोक सिंह, सुजीत कुमार, ब्रजेश झा, प्रदीप सिंह, रौशन शर्मा जैसे अनेक समाजसेवी, पत्रकार एवं लेखक उपस्थित रहे। 

Tuesday, May 19, 2015

आचार्य कृपलानी पर लिखी गई पुस्तक पर चर्चा




नई दिल्ली। वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय द्वारा लिखित पुस्तक शाश्वत विद्रोही राजनेताः आचार्य जे बी कृपलानी पर आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट की ओर से एक परिचर्चा आयोजित की गई। गांधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजित इस परिचर्चा में बड़ी संख्या में लेखक, पत्रकार, समाजकर्मी एवं छात्र मौजूद थे।

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा प्रकाशित पुस्तक पर बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार बनवारी ने कहा कि यह किताब कृपलानी के जीवन और उनके राजनीतिक रुझान पर बेहतर प्रकाश डालती है। हांयह जरूर है कि भारत में पश्चिमी देशों की तरह जीवनी लिखने की परंपरा नहीं है इसलिए कई तथ्य छूट गए लगते हैंपर लेखक ने पुस्तक में कृपलानी जी के राजनीतिक जीवन पर ज्यादा जोर दिया है। शायद इसकी वजह यह भी है कि पश्चिमी देशों के विपरीत भारत में हर जीवनी लेखक अपनी पसंद के अनुरूप जीवनी लिखता है और यहां लेखक खुद एक राजनीतिक व्यक्ति हैं। पश्चिमी देशों में जीवनी लिखने के दौरान जीवन का कोई भी पक्ष छोड़ा नहीं जाता जबकि हमारे यहाँ एक ही व्यक्ति या महापुरुष के अनेक लोगों ने अपने-अपने तरीके से जीवनियां लिखी हैं।

पुस्तक के शीर्षक पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि आचार्य कृपलानी के जीवन में पूरी निष्ठा दिखाई देती हैवे स्वतंत्रचेता हैंजो सोचते हैं छोड़ते नहीं हैं लेकिन स्वतंत्रचेता होना विद्रोही होना नहीं है।

वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन ने कहा कि आचार्य जे बी कृपलानी गांधी की अहिंसा से सहमत नहीं थे फिर भी गांधी को किसी और से बेहतर समझते थे। असहमत होने के बावजूद उनके रास्ते को ही सही मानते थे। उन्होंने आगे कहा कि यह कहीं-कहीं कुछ फासले हैं जिन पर और शोध करने की जरूरत थी। उनका कहना था कि पुस्तक को उन्होंने दो बार पढ़ा है पर यह बहुत देर से समझ पाए कि इसको लिखने का ध्येय क्या है। उनका कहना था कि पुस्तक का उद्देश्य आचार्य कृपलानी को एक सच्चे गांधीवादी के रूप में स्थापित करना था। उन्होंने कृपलानी से संबंधित कई रोचक घटनाओं का जिक्र भी किया।

पुस्तक के लेखक राम बहादुर राय ने स्वीकार किया कि पुस्तक में कई कमियां रह गई हैं जिन पर अभी काम करने की जरूरत है। उन्होंने यह सवाल भी खड़ा किया कि संविधान सभा में जब गांधी के सपनों को कुचला जा रहा था तो क्रांतिकारी जे बी कृपलानी मौन क्यों थे। उन्होंने इस पर शोध की जरूरत बताई।


कार्यक्रम में उपस्थित महत्वपूर्ण लोगों में रामचंद्र राहीअनुपम मिश्रडॉ. शिवानी सिंहडॉ. अशोक सिंहडॉ. अमरनाथ झाराधा बहन, मंजू मोहन, पुतुल बहन, अनिल सिंह, डॉ. राकेश रफीकअशोक शरणअतुल प्रभाकर, संदीप जोशी, उमेश चतुर्वेदी, बसंत भाई, विमल जी, राकेश सिंह जैसे नाम शामिल थे। अंत में आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट के प्रबंध न्यासी अभय प्रताप ने सभी अतिथियों एवं श्रोताओं के प्रति आभार प्रकट किया। संचालन वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत ने किया।

Saturday, March 21, 2015

आचार्य कृपलानी की ३३वीं पुण्यतिथि पर स्मृति व्याख्यान




नई दिल्ली। प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी एवं महात्मा गाँधी के अनन्य सहयोगी आचार्य जेबी कृपलानी की ३३वीं पुण्यतिथि पर आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा 'कृपलानी स्मृति व्याख्यान' का आयोजन गाँधी शांति प्रतिष्ठान सभागार में किया गया
मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए राज्य सभा सांसद जनार्दन द्विवेदी ने मौजूदा राजनीति पर करारा प्रहार किया। उन्होंने कहा कि आज राजनीति व्यक्तिवादी हो गई है। इससे कोई दल अछूता नहीं है। सब एक ही तरह की राजनीतिक धारा में बह रहे हैं। यह स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा के विपरीत है। एक ज़माने में समाजवादी कार्यकर्ता रहे जनार्दन द्विवेदी का कहना था कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में ऐसा सिलसिला चल गया है, जिसमें व्यक्ति बिना कार्यकर्ता हुए पार्टी के शीर्ष पद पर पहुंच जाता है। यह तो वैसे ही है जैसे आप कभी विद्यार्थी रहे नहीं और अध्यापक बन गए।
आचार्य कृपलानी के बारे में मुख्य अतिथि ने कहा कि वे राजनीतिक जरूर थे लेकिन उनका दिमाग गैरसरकारी था। वे हमेशा जनसरोकार के बारे में सोचते थे। जब 1978 में कृपलानी ने राजनीतिक जीवन से संन्यास लेने की घोषणा की थी तो वह सशर्त थी। उन्होंने कहा था कि यदि जनता को जरूरत पड़ी तो मैं फिर राजनीति के मैदान में कूद पडूंगा।
आचार्य कृपलानी स्मृति व्याख्यान की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार एवं आचार्य कृपलानी के जीवनी लेखक पद्मश्री रामबहादुर राय ने कहा कि बतौर कांग्रेस अध्यक्ष जेबी कृपालनी ने गांधी जी को अपना त्यागपत्र सौंप कर एक बड़ा राजनीतिक सवाल खड़ा किया था। वह तब भी प्रासंगिक था और आज भी है। वे आगे कहते हैं कि जब अध्यक्ष रहते हुए कृपलानी ने सरकार के मुखिया पंडित जवाहर लाल नेहरू से पार्टी अध्यक्ष की राय न लेने की वजह पूछी थी तो पंडित नेहरू ने कहा तुमसे पूछने की क्या जरूरत है। सरकार के मुखिया और पार्टी अध्यक्ष के बीच संबंध को लेकर जो सवाल कृपलानी ने खड़ा किया था, वह कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए यक्ष प्रश्न है।
मुख्य अतिथि के वक्तव्य के बाद ट्रस्ट की वेबसाइट (www.kripalanimemorialtrust.org) का लोकार्पण भी किया गया। व्याख्यान में श्रोता के रूप में उपस्थित महत्वपूर्ण लोगों में पी. गोपीनाथन नायर, सतपाल ग्रोवर, धीरू भाई मेहता, पी.वी. राजगोपालन, पी.एम. त्रिपाठी, मंजू मोहन, कुसुम शाह, इंदु बहन, बी. मिश्रा, डॉ. राकेश रफीक, पत्रकार एवं लेखक मधुकर उपाध्याय, अरुण कुमार त्रिपाठी एवं अरुण तिवारी जैसे लोग शामिल रहे। वैसे कार्यक्रम में हर उम्र के अनेक गणमान्य लोग मौजूद थे लेकिन इतने गंभीर कार्यक्रम में युवाओं की अच्छी संख्या में उपस्थिति उत्साहवर्द्धक थी। सभी श्रोता कार्यक्रम के अंत तक जमे रहे। अंत में, गाँधी शांति प्रतिष्ठान के मंत्री सुरेन्द्र कुमार ने अतिथियों एवं श्रोताओं के प्रति धन्यवाद एवं आभार प्रकट किया। कार्यक्रम का संचालन आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट के प्रबंध न्यासी अभय प्रताप ने किया। 

Tuesday, March 17, 2015

करनी होगी नई व्याख्या

- आचार्य जेबी कृपलानी  - 
मैं एक दूसरा पहलू आपके सामने रखना चाहता हूँ। बापू के जो रचनात्मक कार्य हैं, उनके बारे में फिर से बुनियादी विचार करने की जरूरत है। इस संबंध में मैं अपने ख्यालात पेश करता हूँ। बड़ी मुश्किल से, पचीस बरस मेहनत कर के अंग्रेजी सीखी। किसी तरह से अंग्रेजी में अपने ख्याल प्रकट कर लेता हूँ। अब यह हिन्दुस्तानी आई। हम हिन्दुस्तानी सीख नहीं पाए। जैसी टूटी-फूटी आती है उसमें बोलने की कोशिश करूँगा।
पुरानी चीजों का पुनर्जीवन
जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बापू ने रचनात्मक काम शुरू किए उन पर आप निगाह डालें, तो उनके बारे में बुनियादी तौर पर विचार कर सकेंगे। बापू ने पुरानी चीजें हमारे सामने रखीं। बुनियादी तालीम भी कोई नई चीज नहीं है। समाजवादियों ने उन्हें ‘रिवाइवलिस्ट’देखिए फिर दिक्कत आई। मैं ‘रिवाइवलिस्ट’ के लिए हिन्दी शब्द नहीं जानता (किसी ने पुनरुद्धारकशब्द सुझाया)। उद्धारकशब्द में वह सेन्स (मतलब) नहीं आता। समाजवादी और साम्यवादी कहते हैं कि बापू की ‘रिवाइवलिस्ट ऐक्टिविटी’ थी पुरानी चीजों के पुनर्जीवन की कोशिश थी।
क्रान्तिकारकता की पहचान
मेरी समझ में उन्होंने पुरानी चीजों को क्रान्तिकारक चीजें बना दिया। क्रान्तिकारक पद्धति जमाने की माँग को पूरा करने का एक तरीका है। जिस जमाने की जो क्रान्ति-प्रेरणा होती है, उसे पूरा करने वाली चीज क्रान्तिकारक साबित होती है। गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे, उस वक्त जमाने की मांग परदेसी राज को हटाने की थी। यही उस वक्त की क्रान्ति-प्रेरणा थी। परदेसी राज हटाने की कोशिश करने वाले दो तरह के थे। नरम दल वाले और गरम दल वाले। दोनों का तरीका क्रान्तिकारक नहीं था। नरम दल वालों का विश्वास विनय, निवेदन और निषेध (प्रेयर, पीटिशन और प्रोटेस्ट) पर था। दूसरा तरीका बमवादियों का था। हिन्दुस्तान की परिस्थिति में बम गोले का तरीका दूर तक नहीं ले जा सकता था। महात्मा का अहिंसक तरीका उससे भी अधिक क्रान्तिकारी था। क्योंकि वह तरीका जमाने की मांग से मेल रखता था। बम का बेमौजू था। इसलिए लोगों को निडर न बना सका। गांधी जी का अहिंसक तरीका बम के तरीके से भी पुरअसर साबित हुआ।
क्रान्ति के साथ जोडऩे का तरीका
मैं सन् सत्रह, अठारह, उन्नीस और बीस में इतिहास का प्रोफेसर था। चरखा रखना बेवकूफी की बात समझता था। मेरी वृत्ति, शिक्षा-दीक्षा, सब कुछ उसके खिलाफ था। लेकिन उस बूढ़े ने चरखे का संबंध क्रान्ति के साथ जोड़ दिया, तो मुझे चरखा लेना ही पड़ा। ग्रामउद्योग देहातों में घर-घर चलते थे। आज भी थोड़े-बहुत चलते हैं। लेकिन गांधी ने उनको भी क्रान्ति के साथ जोड़ दिया। किसी चीज को क्रान्ति के साथ जोड़ देने का तरीका बड़ा कारगर तरीका है। बड़ा तेज तरीका है। महात्मा की सब प्रवृत्तियाँ क्रान्ति के साथ जुड़ गईं।
प्रार्थना भी क्रान्ति का साधन
और तो और, प्रार्थना भी क्रान्तिकारक हो गई। मैं एक अच्छा आदमी हूँ। इसलिए मैं प्रार्थना में नहीं जाता था। लेकिन हमारा नेता राजनैतिक बातें प्रार्थना में ही करता था। वह प्रार्थना में क्रान्ति लाया। जो लोग बिलकुल बे-ताल थे, उन्हें उसने अनुशासन सिखाया। रामधुन सुर में गाओ, तालियाँ ताल में बजाओ। जहाँ दो आदमियों का मिलकर गाना बेसुर होता था, वहाँ बड़ी-बड़ी सभाओं को एक सुर में रामधुन गाना सिखाया। बेतालों को ताल सिखाया। हिन्दुस्तानी आदमी कभी चुपचाप बैठना तो जानता ही नहीं। इतनी बड़ी प्रार्थना-सभाओं में उसने लोगों को एक-दूसरे के साथ मिलकर चुपचाप बैठना सिखाया। भंगी का काम इस देश में कौन-सा सभ्य आदमी करता। लेकिन उसने उसे भी स्वराज्य के काम के साथ जोड़ दिया। उसने कहा कि मैं बतलाता हूँ कि अंग्रेजों को कैसे निकाला जाये। हमने कहा, बतलाओ। फिर उसने कहा, चरखा लो, झाडू लो। इसलिए इन चीजों को अपनाना पड़ा। जिस चीज का जमाने की इन्कलाबी माँग के साथ ताल्लुक होता है, वह पुरानी होकर भी नया अर्थ लेकर आती है और क्रान्तिकारी रूप ले लेती है।
नमक नहीं क्रान्ति बनाई
जब तक खादी का संबंध अंग्रेजों का व्यापार और राज खत्म करने से था, तब तक लोगों ने बड़े उत्साह से खादी को अपनाया। अब वह मतलब पूरा हो गया। अब फिर मिल के कपड़े की बात शुरू हो गई। उन्नीस सौ तीस में बुड्ढे ने कहा, नमक बनाओ। मोतीलाल जी हँसते थे। लेकिन फैक्ट्स को डिमॉलिश करने वाला विजनवस्तुस्थिति को मात देने वाला दिव्य दर्शनगांधी के पास था। गांधी साबरमती से निकला! पैदल! बुलककार्ट मेंटलिटीवाला बैलगाड़ी की मनोवृत्ति वाला यह आदमी भला बैलगाड़ी में तो चलता! वह तो पैदल चला! हर कदम पर क्रान्ति की बिजली फैलाता चला। दांडी के समुद्र के किनारे उसने नमक नहीं, रेवोल्यूशन मैन्युफैक्चर किया  इन्कलाब बनाया। मगनवाड़ी में हमको कड़वे नीम की पत्ती खिलाई। खली तक खिलाई। हमने चुपचाप खाई। करते क्या! स्वराज जो चाहते थे। इन बातों के पीछे क्रान्ति की प्रेरणा थी।
बुढिय़ा का शगल?
अब इन चीजों में वह जान क्यों नहीं है? इसलिए कि क्रान्ति की पुरानी प्रेरणा खत्म हो गई। जिस उद्देश्य से हमने उन्हें अपनाया था, वह उद्देश्य पूरा हो गया। अब हमें इन प्रवृत्तियों को ओल्ड डेम्स ऐक्टिविटी’– बुढिय़ा का शगल नहीं बनाना है। हमको क्रान्तिकारियों से अब सुधारवादी नहीं बनना है।
क्रान्ति-प्रेरणा से अनुबंध
इसका यह अर्थ हुआ कि इन चीजों को आज की क्रान्ति-प्रेरणा के साथ जोडऩा होगा। हमको अपने चरखा, ग्रामोद्योग आदि कामों को क्रान्ति के साथ बाँधना होगा सिर्फ आर्थिक कारण बतला देना काफी नहीं है। स्वदेशी के जमाने में हमने देश की आर्थिक  उन्नति का कारण बतलाया। वह बात लोगों के दिल में नहीं जमी। जब उसका मेल अंग्रेजों को भगाने के साथ लगाया गया, तो स्वदेशी के आन्दोलन से देश सुलग उठा। अब अंग्रेज चले गए। अब आपको आज की परिस्थिति में नई क्रान्ति की व्याख्या करनी होगी और उस मुख्य क्रान्ति के साथ रचनात्मक काम का कोरिलेशन अनुबन्ध बतलाना होगा।
नई क्रान्ति का उद्देश्य
नई क्रान्ति का उद्देश्य इक्वेलिटैरियन सोसायटीसमतापूर्ण समाज है। चरखा, ग्रामोद्योग, बुनियादी तालीम, पाखाना-सफाई, इन सबको इस उद्देश्य के साथ जोड़ देना होगा। वरना अब इनके दिन लद गए। गांधी ने अंग्रेजी राज के विनाश की परिभाषा में चरखे की फिर से व्याख्या की और इस तरह मरे हुए चरखे को फिर से जिलाया। अब उस चरखे की नई क्रान्ति की परिभाषा में, नये सिरे से व्याख्या करो। यही बात दूसरे सारे कामों के लिए लागू है।
विकेन्द्रीकरण की जरूरत
शुरू-शुरू में काम के बदन के साथ उसकी रूह भी होती है। बाद में यह सिर्फ यांत्रिक रह जाता है। रूह नहीं रहती। आज के बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण के जमाने में उस परिभाषा में चरखे की व्याख्या करनी होगी। हम लोकसत्ता कायम करना चाहते हैं। उसका साधन औद्योगिक विकेन्द्रीकरण है। विकेन्द्रीकरण के सिवा जनतंत्र की बात झूठ है। केन्द्रीकरण से नौकरशाही आती है ब्यूरोक्रेसी या टेक्नोक्रेसी  नौकरशाही या तांत्रिकशाही दोनों लोकसत्ता की समान रूप से दुश्मन हैं। और जहाँ जनतंत्र नहीं, वहाँ अहिंसा नहीं। हम जवाहरलाल नेहरू से कहेंगे कि अगर आपको असली जनतंत्र से गरज है, तो केन्द्रीकरण का लालच छोडऩा होगा। जिस हद तक केन्द्रीकरण होगा उस हद तक जनतंत्र भी कम होगा।
इस विकेन्द्रीकरण की दृष्टि से आप अपनी कार्य प्रणाली की नई व्याख्या कीजिए। अब गाँव-गाँव में बिजली पहुँचेगी। तेल और कोयले का जमाना बीत रहा है। अब मोटरों के हिस्से, जहाजों और हवाई जहाजों के हिस्से, छोटे-छोटे कारखानों में बनेंगे। अमेरिका में विकेन्द्रीकरण की पद्धति से बड़े-बड़े जहाज युद्धकाल में बने। जमाना विकेन्द्रीकरण का है।
पुरानी चीजों की नई व्याख्या का महत्त्व
हमारे धर्म में पुरानी चीज की नई व्याख्या का बहुत महत्त्व है। वेदों पर, पुराणों पर, गीता पर नए-नए भाष्य लिखे गए और लिखे जा रहे हैं। तिलक ने, अरविंद ने, लाला लाजपतराय ने और बापू ने भी पुरानी गीता के नए अर्थ लगाए। किसी चीज को जिन्दा रखने का यह सबसे कारगर तरीका है। अगर आप सारे रचनात्मक संघों का एकीकरण करते हैं, तो जरूर कीजिए। बात बहुत अच्छी है। लेकिन मेहरबानी कर के ध्यान में रखिए कि आपको अपनी प्रवृत्तियों की फिर से व्याख्या करनी है। किस दृष्टि से नई व्याख्या करनी है, यह भी मैंने थोड़े में बतलाया।
मिल कर काम करने की कला
एक बात और। हमारे देश में एक-एक आदमी अकेला बहुत अच्छा काम कर लेता है। इसलिए वह चाहता है कि हरेक बात उसकी मर्जी के मुताबिक हो। अपनी बराबरी वालों के साथ काम करने की कला हम लोगों में नहीं है। कुमारप्पा, जाजू जी, नायकम जी ये सब डिक्टेटोरियल टाइपतानाशाही छाप के आदमी हैं। उनके दफ्तर में उनके सामने कोई चूँ भी नहीं कर सकता। हमको एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करने की कला बढ़ानी है। हम बाहर के आदमियों से मोहब्बत का रिश्ता जोड़ते हैं। लेकिन साथियों से बात करने की भी फुरसत नहीं। गांधी जी से एक बड़ी भूल हुई। उन्होंने हम से कहा कि अपने दुश्मनों से प्रेम करो! यहाँ तो भाइयों से भी प्रेम नहीं करते! इसलिए हमने भाइयों के साथ काम करना भी छोड़ दिया। हमारे स्टैंडर्ड दर्जे के लिए तो यही नियम हो सकता है कि मित्रों को प्रेम दो और दुश्मनों को न्याय दो। मुझमें भी यह नुक्स है। मैंने अपनों से प्रेम करना नहीं सीखा! कुछ आदमियों का यह ख्याल है कि मित्रों के साथ अन्याय किए बिना विरोधियों के साथ न्याय नहीं हो सकता।
न्यूटन और बिल्लियाँ
रचनात्मक संघों के संचालक अगर एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर काम करने लगेंगे, तो हमारे बीच भीतरी मुहब्बत और सहयोग कायम होगी। इस एक ही संघ से भाईचारे का काम भी हो सकेगा। इन संस्थाओं के मिलाप के लिए अलग संघ और आदमियों के मिलाप के लिए अलग संघ बनाने की बात सुनकर मुझे न्यूटन का किस्सा याद आता है। वह अपना कमरा बंद कर के अध्ययन करने बैठता। लेकिन अपनी प्यारी बिल्ली के लिए उसने दरवाजे में सूराक बना दिया। बिल्ली के जब बच्चा हुआ तो न्यूटन ने बड़ी बुद्धिमानी से बच्चे के लिए छोटा सूराक बनवाया। मानो बड़ा सूराक दोनों के लिए उपयोगी न था। हम भी इस तरह के छोटे और बड़े सूराक बनाने के चक्कर में न पड़ें।

रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन (खुला अधिवेशन) में 15 मार्च 1948 को दिया गया भाषण।

शहादत का रास्ता

- आचार्य कृपलानी - 
मैं नहीं जानता, मैं कहाँ हूँ। कांग्रेस से निकल गया हूँ, सरकार में हूँ नहीं। सोशलिस्ट मुझे गांधीवाला कहकर दूर भागते हैं, बाहर के लोग मुझे गांधीवाला समझते हैं, लेकिन यहाँ के बड़े-बड़े गांधीभक्तों में मैं नहीं हूँ। मेरी खादी पर जाजूजी के सामने पानी फिर जाता है। मुझे पता नहीं मेरी जगह कहाँ है? मैं कहीं का भी नहीं हूँ।
कपड़ा बदला या दिल?
गुजरात विद्यापीठ में बापू की जयंती के समय महादेवभाई का भाषण हुआ। गांधी जी के सम्पर्क में आने से महादेवभाई के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन हुआ यह उन्होंने बतलाया। मैं भी सोचने लगा कि क्या मुझमें भी कुछ अदलबदल हुआ है। अपने भीतर झाँक कर देखा तो मालूम हुआ कि सिर्फ कपड़ा बदला है, और कुछ नहीं बदला। मिल के कपड़े की जगह खादी आई। मैं अर्थ का अनर्थ नहीं करना चाहता। जो बात कह रहा हूँ उसे समझा देता हूँ।
बापू की नकल उतारने का खब्त
एक बार बिहार में हम लोग काम करते थे तो मेरे विद्यार्थी भी मेरे साथ थे। एक दिन देखा तो कुछ विद्यार्थियों के बदन पर कुर्ता नहीं था, सिर्फ छोटी-सी धोती और चादर थी। मैंने कारण पूछा। उन्होंने कहा, ‘‘बापू आजकल कुर्ता नहीं पहनते, इसलिए हम भी नहीं पहनते।’’ मैंने उनसे कहा, ‘‘भूखे और नंगे आदमियों को देखकर कुर्ते से बापू के शरीर में जलन होती थी, आग-सी लग जाती थी, उससे बचने के लिए उन्होंने कुर्ता उतार कर फेंक दिया। तुम्हारे शरीर में वैसी जलन तो नहीं होती। तुम्हें कुर्ता फेंकने की जरूरत!’’ साबरमती में आश्रम की प्रार्थना की जगह बालू थी। दूसरी जगह आश्रम बना। वहाँ पास में नदी नहीं थी। दूर-दूर से बालू लाकर डाली गई। क्योंकि बालू पर बैठे बिना प्रार्थना में दिल नहीं लगता। साबरमती में बदसूरत बर्तन थे। दूसरी जगह आश्रम बना। वहाँ गुजरात नहीं था, लेकिन वैसे ही बदसूरत बर्तन लाए गए। कई आश्रमवासी ठीक बापू की तरह उसी जगह घड़ी लगाते हैं। मुझे डर यह है कि बापू के नाम पर जो संस्था बन रही है उसमें कहीं ऐसा ही न हो।
गांधीवृत्ति का कोई पैमाना नहीं
जब तक बापू थे, जिससे पूछो वही कहता कि ‘गांधीजी से पूछकर किया है। सरकार भी कहती कि गांधीजी से पूछकर किया है।‘ गांधीजी की अहिंसा को कोई नहीं समझता। फलां आदमी गांधी जी की अहिंसा को मानता है, इसका क्या थर्मामीटर! बहुत से गुस्सावर लोग हृदय से कोमल होते हैं। शाकाहारी आदमी लोगों का इतना खून चूसता है कि मांसाहारी भी नहीं चूसता। मैं कहना यह चाहता हूँ कि हमें गांधीजी की स्पिरिट में काम करना है, किसी बाहरी चीज का अनु·रण नहीं करना है।
यह रास्ता शहीद होने का है
सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलने वाले को समझ लेना चाहिए कि यह रास्ता शहीद होने का रास्ता है। सत्य और अहिंसा के रास्ते पर जो कोई इफेक्टिव’ (परिणामकारक), काम करेगा वह एक न एक दिन मारा जाएगा। सत्य और अहिंसा का रास्ता दुनिया सह नहीं सकती। बापू जी की जीवनी को देखिए, उन्हें जब दूसरा कोई मारने के लिए तैयार नहीं होता था तो वे अपनी आत्माहुति देने पर तुल जाते थे। अपने मारे जाने के मौके पैदा कर देते थे। अभी मानवता की इतनी प्रगति नहीं हुई है कि सत्य और अहिंसा के रास्ते पर मजबूती से चलने वाला भी मारा न जाए। आपको अपनी आहुति देने के मौके पैदा करने होंगे। आपकी किस्मत अच्छी होगी तो नहीं मारे जाएंगे। लेकिन शायद मारे जाने पर ही आप की दैवीशक्ति सफल होगी। अगर कांग्रेस ने कुर्बानी का रास्ता छोड़ दिया तो उसका काम न चलेगा। कुर्बानी का रास्ता गांधीजी दिखा गए हैं। उस हुतात्मा के रास्ते पर हम को चलना है। अगर हम में दम है तो गांधीजी के नाम पर नहीं बिकेंगे। उनकी जो चीज हम को जँचेगी उसे लेंगे, जो नहीं जँचेगी उसे छोड़ देंगे। लेकिन सत्य और अहिंसा की राह हरगिज न छोड़ेंगे। यही बापू का सच्चा रास्ता है।
पवित्रता का प्रदर्शन
बापू का मार्ग चलाने का मतलब यह नहीं है कि हम उनकी नकल उतारें। कुछ लोग तो बापू की नकल उतारने में अपने को बापू से भी चढ़ा-बढ़ा दिखलाने की कोशिश करते हैं। एक तरह से दुनिया पर जाहिर करना चाहते हैं कि गुरु गुड़ रह गए, चेला चीनी बन गया। बापू ने अपनी उम्र में इस तरह पवित्रता का प्रदर्शन कभी नहीं किया। हम खबरदार रहें। अपने को ऊँचा और पवित्र समझने वालों की एक जमात न बना लें।

रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन (खुला अधिवेशन) में 14 मार्च 1948 को दिया गया भाषण।