- आचार्य कृपलानी -
मैं सिंध के एक वैष्णव परिवार से सम्बन्धित हूँ। हम लोग वल्लभ संप्रदाय के पुष्टि मार्ग के
हैं। संप्रदाय के सबसे बड़े पुजारी को ‘महाराज’ कहा जाता था। महाराज अपने अनुयायियों से दक्षिणा एकत्र ·रने आया करते थे। वे जब भी शहर आते, मेरे पिता उन्हें घर पर आमंत्रित करते। लेकिन इसके लिए महाराज को काफी मोटी दक्षिणा देनी
पड़ती थी। पिताजी स्वयं मोटी दक्षिणा तो अर्पित करते ही थे, साथ ही आस-पड़ोस के लोगों को भी बुला लेते थे। आदमी, औरत, बच्चे सभी महाराज के ‘दर्शन’ करने आते। दर्शन पाने के लिए हरेक सोने या चाँदी से बनी चीजों का चढ़ावा देता था। बच्चे तक
बिना चवन्नी चढ़ाए (वह भी चाँदी की होती थी) महाराज का
दर्शन नहीं कर सकते थे। उन दिनों के लिहाज से चवन्नी भी खासी बड़ी रकम हुआ करती
थी। चढ़ावा चढ़ाने वालों को प्रसाद के रूप में कपड़े का एक टुकड़ा जरूर मिला करता था।
जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, मैंने इन ‘महाराजों’ के
चरित्र के बारे में तरह-तरह के किस्से सुने। मेरी बाल-सुलभ आस्था डगमगा गई। मेरे
भाइयों का विश्वास भी इन सब महाराजों से उठ गया। पिताजी ने इस परिस्थिति को भांप
लिया। इसलिए श्रद्धालु पिता ने अपनी जमीन का एक कीमती टुकड़ा बेच दिया और उस आमदनी को नाथद्वारा के हमारे
मुख्य मंदिर को दान में दे दिया, ताकि उससे आने वाले कई वर्षों तक महाराजों को हमारे परिवार की ओर से दक्षिणा मिलती रहे।
मैं पिछले कोई साठ वर्षों से उत्तर प्रदेश और दिल्ली में रह रहा हूँ। मेरी
इच्छा जन्माष्टमी के अवसर पर वृन्दावन और मथुरा देखने की बनी रही है क्योंकि उस
रात को सद्य: जात बाल-कृष्ण का दर्शन मिलता है। लेकिन मुझे हमेशा लोगों ने यही कह कर
निरुत्साहित किया है कि मथुरा के मंदिर में उस रात बहुत भीड़ होती है और मैं उस
धक्का-मुक्की में बाल-कृष्ण का दर्शन नहीं कर सकूँगा।
कुछ वर्ष पहले मेरे एक मित्र ने मुझे जन्माष्टमी के अवसर पर अपने साथ वृन्दावन और
मथुरा चलने का आग्रह किया। उन्होंने मुझे यह भरोसा भी दिलाया कि वे मुझे भक्तों की
अपार भीड़ में दबने नहीं देंगे और कृष्ण-जन्म दर्शन आराम से हो जाएगा। मैंने उनका
यह स्नेह और आग्रह भरी बात स्वीकार कर ली। हम लोग जन्माष्टमी से एक
दिन पहले ही वृन्दावन पहुँच गए। उस दिन वहाँ कृष्ण-सुदामा
मिलन का नाटक भी
खेला गया। कृष्ण द्वारकाधीश थे उस समय। सब जानते ही हैं कि सुदामा कृष्ण के बचपन के
सखा थे! नाटक बहुत
अच्छा था। फिर एक नाच
हुआ जिसे आयोजक अंग्रेजी
शब्द का इस्तेमाल ·रते
हुए पी-काक डांस कह
रहे थे! यह भी कोई नाच था भला? एक लड़के ने मोर पंख पहन लिए थे और वह स्टेज पर यहाँ से वहाँ कूद-फांद
रहा था–
दर्शक अलबत्ता बहुत मजा ले रहे थे। और शायद नाच में मजा आए तो उस·ा मतलब पूरा हो जाता हो!
जन्माष्टमी के दिन हम वृन्दावन से मथुरा आए। हम लोग दिन भर उन प्रसिद्ध स्थलों
में घूमते रहे, जिनका
सम्बन्ध कृष्ण के बचपन और युवावस्था से है, जहाँ उनकी बाल-लीलाएँ हुईं और जहाँ वे गोपी-ग्वालों के संग
खेलते रहे थे।
रात को हम मुख्य मंदिर में पहुँचे। हम जरा पहले ही चले आए थे। फिर ‘विशिष्ट अतिथि’ होने के नाते हमें मंदिर के गर्भगृह (भीतरी हिस्से) में
प्रवेश भी मिल गया। जैसे-जैसे दर्शन के लिए कपाट खुलने का समय पास आता गया, भीड़ बढ़ती ही चली गई। क्या जवान, क्या बूढ़े, क्या आदमी, क्या औरतें–ठसाठस भर गए। हम लोग नवजात कृष्ण की बस एक
झलक ही देख पाए होंगे कि भीड़ के धक्के में मेरे साथी भी गायब
हो गए। मैं तो ऐसा फँस गया कि उसमें से बाहर निकल पाना असम्भव-सा लगने लगा।
सौभाग्य से राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री शेखावत भी वहाँ दर्शन के लिए आए थे।
उन्होंने मेरी दयनीय हालत देखी और अपनी मजबूत राजस्थानी बांहों से मुझे घेरे में
लेकर भीड़ से सही सलामत बाहर ले आए।
अगले दिन मैं मथुरा के खुले मैदान में जो मेला लगा था, उसे देखने गया। तरह-तरह की दुकानें। गायकों और मुख्य
अतिथियों आदि के ख्याल से एक मंच भी बनाया गया। हम लोग इस मंच पर बिठाए गए। पहले कुछ भजन
गाए गए फिर कोई दर्जन-भर लड़के-लड़कियाँ मंच पर चढ़ आए। ये कृष्ण के गोपी-गोपियाँ
थीं! पर इनकी पोशाकें कोई गाँव के ग्वालों जैसी नहीं थीं। ये सब भड़कीली रेशमी
पोशाकें पहने थे।
यह चलन तो बन ही गया है कि नेता किस्म के आदमी से ऐसे आयोजन में ‘दो शब्द’ कहने का आग्रह किया जाता है। न जाने क्यों, उस आयोजन में लोगों ने मेरे साथी संसद सदस्य के बदले मुझे
मुख्य अतिथि मान लिया और मुझसे ‘दो शब्द’ कहने को
कहा। मुझे ठीक से याद
नहीं आता कि उस मौके पर मैंने क्या कहा था। पर बाद में एक आयोजक का पत्र आया था। उससे मुझे पता चला कि मैंने उस दिन
जन्माष्टमी आयोजन के प्रबंध की आलोचना की थी। मैंने उन्हें जवाब देते हुए लिखा कि
मुझे आयोजन और प्रबंध ठीक ही लगा था। हाँ, मैं यह जरूर नहीं समझ पाया था कि मेले में लगी दुकानों को ‘मीनाबाजार’ क्यों कहा गया था! मैंने उस दिन यह भी कहा था कि ऐसे आयोजन
यथासम्भव सहज और स्वाभाविक ही होने चाहिए। उसमें बनावट से बचना चाहिए।
उससे पहले मुझे बताया गया था कि कृष्ण का जन्म स्थान खोज निकाला गया है। मैं
इसे कोई पुरातत्व की खोज मानकर वहाँ जाने के लिए बहुत ही उत्सुक
हो उठा। पर लोग मुझे एक बड़े मंदिर में ले आए। तब मैंने सोचा कि हो स·ता है इस मंदिर के गर्भगृह में उनका जन्म हुआ होगा और बाद
में इसी जगह पर इतना विशाल मंदिर बना दिया गया हो। लेकिन भीतर जाने पर मुझे वहाँ
राधा-कृष्ण की सामान्य मूर्तियों के अलावा और कोई खास बात नहीं दिखी। मंदिर के
प्रवेश द्वार पर एक बहुत मोटे पुजारी बैठे थे। वे सभी को चरणामृत बाँट रहे थे, बेशक बिना दक्षिणा के नहीं! उनने मुझे भी चरणामृत दे दिया। पर
मेरे पास उन्हें देने के लिए पैसा कहाँ था। घर से बाहर निकलते हुए भी मुझे अपने
साथ पैसा रखने की आदत नहीं है। वह बेचारा मोटा पंडित निश्चित ही बहुत उदास हुआ
होगा।
आयोजन के दिन उस भाषण में मैंने यह जरूर कहा था कि यूरोप में ऐसे मंदिरों को
या ऐसे धार्मिक स्थलों
को यथासम्भव उनके वास्तविक रूप में ही रखा जाता है। मैंने उस खनौटे का उदाहरण भी दिया
था,
जिसमें जनम के बाद सराय की भीड़भाड़ से बचने के लिए ईसामसीह
को रखा गया था। आज जो नाँद-नुमा खनौटा वहाँ रखा है, वह निश्चित ही ईसा के जन्म के काफी बाद बनाया गया होगा, पर उसका रूप मूल खनौटे की तरह ही रखा गया है। यही सब मैंने
उस दिन के भाषण में कहा था। भला यह उस दिन के आयोजन की आलोचना कैसे हो गई?
खैर छोडि़ए इन बातों को। मैं यहाँ कृष्ण भक्तों के सामने एक
प्रस्ताव रखना चाहता हूँ। पूरे देश में, खास तौर पर गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और बंगाल में बहुत ही सम्पन्न वैष्णव हैं। मैं
चाहता हूँ कि ये लोग यमुना के किनारे वृन्दावन और मथुरा के बीच कहीं सौ-डेढ़-सौ एकड़
जमीन खरीद लें। फिर उस पर एक अच्छा घना जंगल लगाएँ। बाद में इस जंगल में कुछ गायें और
हिरण छोड़ दिए जाएँ और इन्हें उन्मुक्त घूमते रहने दिया जाए। एक
किशोर जो बांसुरी बजा सकता हो, इस जंगल में ग्वाले की तरह रहा करे। घने जंगल के बीचों-बीच कुछ
जगह खाली छोड़ दी जाए– यहाँ कभी-कभी युवक-युवतियाँ
आकर गा-नाच सकें। इस खाली जगह में ही एक छोटा-सा मंदिर बनाया जाए। मंदिर में बस ए· जेल ·ी कोठरी हो। उसमें सीं·चे लगे
हों। जन्माष्टमी के दिन यहाँ पर कृष्ण जन्म की झाँकी दिखाई जाए। इस तरह यहाँ सै·ड़ों श्रद्धालु भक्त जन्माष्टमी के दिन आसानी से कृष्ण जन्म
देख सकेंगे और उन्हें आज की तरह मथुरा शहर के सँकरे मंदिर में इस दर्शन के लिए धक्के
नहीं खाने पडेंगे।
मेरे इस सुझाव को कृष्ण के धनवान भक्त स्वीकार कर लें तो बहुत अच्छा होगा। कृष्ण
का ऐसा स्मारक आज के
महंगे कृष्ण मंदिरों से कहीं बेहतर होगा। यों भी मथुरा में मंदिरों की कोई कमी
नहीं है।
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